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LOONKARANSAR, RAJASTHAN, India
..कि स्वंय की तलाश जारी है अपने और बैगानों के बीच !!

सोमवार, 17 नवंबर 2008

राजस्थानी गंगा

( गीत )

चान्दडलो गिगनार

- (राज बिजारनियाँ)

चान्दडलो गिगनार

परदेसां में पीव अमूझै महलां बैठी नार

चुड़लो, नाथ, बोरलो, बिछिया,

पायळ री झनकार

थां बिन छेल भंवर सा

म्हारो बदरंगी सिणगार

काळजियो कळपै किरळावै नैनां झारम-झार

गिणता-गिणता आन्गालियाँ पर

दिन बदळ्या बण मास

नणदोई जी नणदळ साथै

थै क्यूं नीं हो पास

पल-पल म्हारो जीव पतीजै मनडो तारम-तार

बसंत बीतग्यो बासी पड़गी

फागण री फगुवार

चेता-चूक चेत सावणियो

नैनां काजळ सार

कुरजां कैइजो सायब जी नै आओ लारम-लार

चान्दडलो गिगनार

रविवार, 16 नवंबर 2008

ग़ज़ल

वही ढ़ाक के तीन पात हो गयी

(-राज बिजारनियाँ)

सांझ से सूरज मिला कि रात हो गयी

आँख के डोरे तने और बात हो गयी

आदम उतरा आसमां से पाक रूह में

लग हवा धरती की न्यारी जात हो गयी

प्यादों की सरकार अनूठी चलती है

सर खुजलाए शाह कैसे मात हो गयी

ख़ुद से ज्यादा रख भरोसा देखा तो

नहीं समझ में आया भीतरघात हो गयी

कितनी बार बदलकर सत्ता देखी 'राज '

वही ढ़ाक के तीन पात हो गयी