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..कि स्वंय की तलाश जारी है अपने और बैगानों के बीच !!

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

हरदड़ैरो हरियो चोर

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हरदड़ै रो हरियो चोर, खोलै खिड़की बोलै मोर.!
 

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-राज बिजारणियां

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'गुङायदे, चिबले, मार अमाड़ो, चाल पिदीड़ा, ठारनाख अर वाह खब्बूङा वाह!' जेङै कितरा बोलां री रम्मक-झमक फागण रैआं दिनां में हरेक गाँव-गळी-गुवाड़ में आपरो रंग दिखावै। रिमझोळ निगै आवै हरदड़ो खेल रै रसिया में।
 
संस्कृति अनै संस्कारां री साख भरता ग्रामीण खेलां रै खजानै रो एक सांतरो मोती। टाबर तो टाबर, बूढा-बडेरा'बालपणै रै चितरामां में हब्बाबोळ हुयोड़ा, घणै जोस सूं हुंकार भरै। इण विरासत नै परोटै-टंडवाळै। अडबळी, खटकण, हिंगदड़ो इत्याद कई नावांरै धणी इण खेल रै वजूद नै बचावण री जुगत पण बरकरार।
 
 
 


 
 
 
स्योरात रै पावण दिन सूं इण खेल री सरूआत। अर होळी रै सैं दिन तांई इण री धमक परवान चढै। खेलती बेळा मंड्या पाणा किणी रणभोम सूं निजोरा निजरनीं आवै। खेल सरू हुवणै सूं पैलां दो पाणा मंडै। बराबर-बराबर भीरू बंटै। खेल सरू हुवै। दो ठीयां (इंर्टया भाटां) पर बाँस री बळी मेल'पूर री दड़ी सूं बळी नै गुङावण रो सिलसिलो सरू व्है। हारेङै पाणै रा गळ्योड़ा (आऊट हुयोड़ा) भीरू पिदाई चुकावै। जीत्योड़ै पाणै रो एक-एक खिलाड़ी बारी-बारी सूं अमाड़ा लगावै। पीदणवाळा दड़ी नै एक ही ठोकर में जे पाछी पाणै में पुगाय देवै या दोनूं हाथां सूं चिब लेवै तो सा'मलो अमाड़ा लगाय रैयो खिलाड़ी उतर जावै। अमाड़ो लाग्योड़ी दड़ी जे खबियै हाथ सूं चिब लेवै तो सगळो पाणो ही गळ जावै अर हरदड़ो फेरूं नूंवै सिरै सूं सरू हुवै। जीत्योड़े पाणै रो कोई भीरू गळै नींतो बो घी रो घड़ो गिणी जै।
 



 

इण बगत खिलाड़ी खेलता-खेलता आपरा सुर भी काढ़ता जावै-



'हरदड़ै रो हरियो चोर, खोलै खिड़की बोलै मोर।'
 


हरदड़ो मौज-मस्ती, भाईचारै अर आपसी मेळ-मिळाप रो प्रतीक। होळी मंगळावै तो साथै ही हरदड़ै नै   मंगळापरा फेरूं अगलै बरस री स्योरात ताईं अडबळीसूं करै राम-राम।

राई राई रतन तळाई

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राई राई रतन तळाई, महीयो गूंज्यो कीं नै घमकाई
 
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-राज बिजारणियां
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राई-राई रतन तळाई। महीयो गूंज्यो, कीं नै घमकाई, चढ-चढ मकड़ी-घोड़ा लकड़ी, लाला-लाला लिगतर द्यूं कै ल्यूं, पाछो घिर गुद्दी में द्यूं, घूम-घूम चकरी-बाबो ल्याया बकरी, बाटकड़ी में चमा-चोळ - माऊ बाबो ढेल मोर, लौह-लक्कड़ - चां-चक्कड़, किण रै घर रो डेरो अर इरची-मिरची-राई का पत्ता हाथी दांत कलम रा छत्ता। जे़डा सैंकड़ूं खेलां रा सुर जमाने री तेज रफ्तार रै बिचाळै मंदा पड़ग्या। एक बगत हो जद गाँव अनै कस्बा आपरी ओळख रीति-रिवाजां, सीर-संस्कारां अर खेलां रै पेटै बणायनै राखता। पण अब परम्परावां अर ग्रामीण जीवण री रूखाळी करता संस्कार आधुनिक ता री चमक-दमक में धुंधळा पड़ रैया है।
 
लुक-मीचणीं, लूणीयां-घाटी, कुरां, जेळ, तिग्गो, गड्डा, आंधा-घोटो, हरदड़ो(अडबळी), धोळियो-भाटो, कां-कुट, झूरणी, न्हार-बकरी, सतोळीयो, मारदड़ी, चरभर, खोड़ियो-खाती, शांकर बल्लो, भैंसा दबको, लाला-लिगतर, चढ-चढ मकड़ी, घुत्तो, निसरणी, गुल्ली-डण्डो, मार-मु को इत्याद सगळा खेल जिका अपणै आप में गाँवां रै इतिहास नै संजोय, गांवा री कूंत करता हा, गांव री रुणक बतांवता हा। आज कठै गमग्या? सोचण री बात है।
 
 
 
 
 
 
गाँव-गुवाड़ अर गळियां में कदेई आं खेलां री धाक हुंवती पण अब तो फगत क्रिकेट रो भूत ही अठै घूमर घालै। ले देयनै कबड्डी, रूमाल-झपटो, रस्साकस्सी, खो-खो, गुल्ली-डण्डो जे़डा कैई खेलां नै परम्परागत ग्रामीण खेलकूद प्रतियोगितावां रै नांव पर खेल परिषद कांनी सूं रूखाळणै रो दम भरीजै है। गाँव री छोरी-छींपरयां रो भेळी होय' गडा खेलणोई अब कठै निजर आवै? आज री पीढ़ी री आं खेलां रै पेटै ही बेरूखी रैई तो आवण आळी पीढ़ी नै विरासत में खेलां रो नांव भी नीं दे पावांला।
 
खेल मिनख री जिनगाणी रौ सदीव सूं अंग रैयो है। गाँव री गुवाड़ टाबरां री रम्मत सूं हरी-भरी रैंवती। पण जद सूं टेलिविजन घर में बापर्यो है, बाळकां रो बाळपणो छांई-मांई हुग्यो। टीवी देखता टाबरां नै रोटी जीमण रो फोरो कोनी। पछै गुवाड़ में रमण कीकर जावै। बेसी सूं बेसी नम्बर ल्यावण रो फोबियो टाबरां री निजरां पोथी-पानड़ां में उळझायां राखै।