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..कि स्वंय की तलाश जारी है अपने और बैगानों के बीच !!

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

रात ढ़ळै इमरत झारै

 
 
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रात  ढ़ळै  इमरत  झारै
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कदी  छांवलो  रळमळतो
कदी  तावड़ो  तळमळतो
 
 
रात  ढ़ळै  इमरत  झारै
दौड़ै  दिनड़ो  बळबळतो

 
भातो  ले‘ नै  व्हीर  हुई
ओढ्यां पीळो  पळपळतो
 
 
कोसां टुर  पाणी ल्याणो
आधो घडि़यो चळभळतो
 
 
पड़ी बेलड़्यां सिर जोड़ै
हंसे मतीरो  खळबळतो


बाड़

 
 
 
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बाड़ घर की सुरक्षा के लिए कवच समान है।
बाड़ घर की सुरक्षा में मुस्तैद रहती है।
 मैंने बाड़ सीरीज से कुछ कविताएँ लिखी है।
आपके साथ साझा करना चाहता हूँ।
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बाड़-1
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निधड़क
सोता है
 
हर रात घर
बिना डर.
 
बाड़..!
 
फैलाकर बाँह
करती आँचल छाँह।
 
मुस्कराकर
हौले से...
 
भरती हौंसला
बंधाती धीज
दिलाती है भरोसा
 
पगले.!
मैं हूँ ना.!! 
 
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बाड़-2
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मां
लगा आती है धोक
ठाकुर द्वारे.!
 
हो आती है गांव।
 
बतिया आती
पीहर के पनघट से
बिना जिक्र.!
 
बाबूजी
बनकर
चौपाल का हिस्सा...
 
घूम आते हैं
चर्चाओं के
पर लगाकर
दूर तलक
 
बिना फिक्र.!
 
उनके
विश्वास की गवाह
बाड़ जो है
 
घर की चौकीदार.!
 
* * *
 
 
 
बाड़-3
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बाखळ
भले भूल जाए
धर्म.!
 
बाड़
कब छोड़ती है
मर्यादा.?
 
घर भी
सिमट आता है
अक्सर
कमरे तक
जाने-अनजाने
रूठकर
बाखळ और चौकी से।
 
..पर बाड़.!
 
हँसते
मुस्कुराते
बाँहे फैलाते
 
करते हुए
रामा-श्यामा।
 
पाल लेती है
लक्ष्मण धर्म
निभाते हुए फर्ज
बनकर
लक्ष्मण रेखा.!
 
* * *
 
बाड़-4
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जुड़ती गई
एक एक ईंट
 
उखड़ती गई
खांसती
सिमटती
कांपती
बरसों जूनी बाड़।
 
घर
निहारता
नवौढ़ा भींत.!
 
बाड़
ताकती घर.!!
 
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बाड़-5
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कितने घर
होते हैं पोषित
तेरी छत्र छाया में!
 
कितनी घड़कनें
करती स्पंदन
तेरे चरणों की
मखमली धूल पाकर!
 
तेरे आंचल की
छांव तले
सैंकड़ों प्रजातियां
सम्भालकर
विरासत
सौंपती है
नई जींस को
रूप और आकार!
 
उम्र दर उम्र
युग संवारती
फिर तुम
कैसे हो सकती हो
अचेतन..?
हे मातृ स्वरूपा
बाड़.!
 
* * *
 
(राज बिजारणियाँ)