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राई
राई रतन
तळाई, महीयो
गूंज्यो कीं
नै घमकाई
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-राज
बिजारणियां
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राई-राई रतन
तळाई। महीयो
गूंज्यो, कीं
नै घमकाई,
चढ-चढ
मकड़ी-घोड़ा
लकड़ी, लाला-लाला लिगतर
द्यूं कै
ल्यूं, पाछो
घिर गुद्दी
में द्यूं,
घूम-घूम
चकरी-बाबो
ल्याया बकरी,
बाटकड़ी में
चमा-चोळ
- माऊ बाबो
ढेल मोर,
लौह-लक्कड़
- चां-चक्कड़,
किण रै
घर रो
डेरो अर
इरची-मिरची-राई का
पत्ता हाथी
दांत कलम
रा छत्ता।
जे़डा सैंकड़ूं
खेलां रा
सुर जमाने
री तेज
रफ्तार रै
बिचाळै मंदा
पड़ग्या। एक
बगत हो
जद गाँव
अनै कस्बा
आपरी ओळख
रीति-रिवाजां,
सीर-संस्कारां
अर खेलां
रै पेटै
बणायनै राखता।
पण अब
परम्परावां अर ग्रामीण जीवण री
रूखाळी करता
संस्कार आधुनिक
ता री
चमक-दमक
में धुंधळा
पड़ रैया
है।
लुक-मीचणीं, लूणीयां-घाटी, कुरां,
जेळ, तिग्गो,
गड्डा, आंधा-घोटो, हरदड़ो(अडबळी), धोळियो-भाटो, कां-कुट, झूरणी,
न्हार-बकरी,
सतोळीयो, मारदड़ी,
चरभर, खोड़ियो-खाती, शांकर
बल्लो, भैंसा
दबको, लाला-लिगतर, चढ-चढ मकड़ी,
घुत्तो, निसरणी,
गुल्ली-डण्डो,
मार-मु
को इत्याद
ऐ सगळा
खेल जिका
अपणै आप
में गाँवां
रै इतिहास
नै संजोय,
गांवा री
कूंत करता
हा, गांव
री रुणक
बतांवता हा।
आज कठै
गमग्या? आ
सोचण री
बात है।
गाँव-गुवाड़ अर
गळियां में
कदेई आं
खेलां री
धाक हुंवती
पण अब
तो फगत
क्रिकेट रो
भूत ही
अठै घूमर
घालै। ले
देयनै कबड्डी,
रूमाल-झपटो,
रस्साकस्सी, खो-खो, गुल्ली-डण्डो
जे़डा कैई
खेलां नै
परम्परागत ग्रामीण खेलकूद प्रतियोगितावां रै
नांव पर
खेल परिषद
कांनी सूं
रूखाळणै रो
दम भरीजै
है। गाँव
री छोरी-छींपरयां रो
भेळी होय'र गडा
खेलणोई अब
कठै निजर
आवै? आज
री पीढ़ी
री आं
खेलां रै
पेटै आ
ही बेरूखी
रैई तो
आवण आळी
पीढ़ी नै
विरासत में
खेलां रो
नांव भी
नीं दे
पावांला।
खेल मिनख री
जिनगाणी रौ
सदीव सूं
अंग रैयो
है। गाँव
री गुवाड़
टाबरां री
रम्मत सूं
हरी-भरी
रैंवती। पण
जद सूं
टेलिविजन घर
में बापर्यो
है, बाळकां
रो बाळपणो
ई छांई-मांई हुग्यो।
टीवी देखता
टाबरां नै
रोटी जीमण
रो ई
फोरो कोनी।
पछै गुवाड़
में रमण
कीकर जावै।
बेसी सूं
बेसी नम्बर
ल्यावण रो
फोबियो ई
टाबरां री
निजरां पोथी-पानड़ां में
उळझायां राखै।
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