अपने और बैगानों में ख़ुद की तलाश..!
लोक संस्कृति की मिठास लिए विभिन्न बातों- ख्यातों और गीतों-रीतों की पैरवी करते रेतीले धोरों की पैदाईश हूँ मैं.! दो दशक पहले अपना अस्तित्व गवां चुके लूनकरनसर तहसील के गाँव ''मोटोलाई'' में मेरा जन्म हुआ ! अपनी जमीन से बिछुड़ने का दर्द क्या होता है, यह महसूस किया है मैंने अपनों की आंखों में.!
कभी चौपाल तो कभी एक ही बाखल में हुक्कों से उठते धुंए व चिलम के चस्कों के बीच घुटने वाली हथाई की सुनहली यादें आज भी मेरे अपनों की धुंधलाई आंखों में साफ-साफ नजर आती है! १९८४ से १९८७ के बीच ''महाजन फील्ड फायरिंग रेंज'' के अंतर्गत 'गाँव उठाऊ' कार्रवाई की भेंट चढ़ गया मेरा अपना गाँव॥मेरा अपना घर...और सैंकडों ख़ुद मेरे अपने...!!
तन्हा पीछे छोड़ गया है जाने वाला यादों को,
फिर भी कितने लाड प्यार से हमने पाला यादों को,
नंगे पाँव मिले रस्ते में जब पलकों को गुजरे दिन,
फूट-फूटकर घंटों रोया पाँव का छाला यादों को !!
इस शेर की यह पंक्तियाँ रह-रहकर बिछोह की पीड़ा को फिर से जीवंत कर देती है! उन धोरों में कलकल बहती लोक संस्कृति और लोक गीतों की वैतरणी का मुझ पर ऐसा असर पड़ा कि मेरे हाथों में थमी आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचने वाली कूंची का सहचर्य कलम भी करने लगी!
बस, तबसे कूंची और कलम की संगत जारी है! कभी लेखन, कभी पेंटिग, कभी रंगमंच, कभी मिमिक्री तो कभी एंकरिंग तथा पत्रकारिता के बहाने लोगों से जुड़ने का प्रयास भी मानवीय स्वार्थवश कर रहा हूँ, या यूँ कह लीजिए ख़ुद को तलाशने की कवायद बदस्तूर जारी है॥!!