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LOONKARANSAR, RAJASTHAN, India
..कि स्वंय की तलाश जारी है अपने और बैगानों के बीच !!

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

म्हारो कांई दोस मावङी


म्हारो कांई दोस मावङी
॥ऽ॥ऽ॥ऽ॥ऽ॥ऽ॥ऽ॥ऽ॥ऽ॥ऽ॥

कूख  मांय  मत  मोस मावङी
म्हारो   कांई   दोस   मावङी

  साँसां   बेमाता   री   है
तूं  आनै  मत  खोस  मावङी

तूं  छोरी  ही  म्हैं  छोरी  हूँ
करलै  थोङो   होस   मावङी

टाबर - टाबर  भेद  करै  तो
जाऊँ  काळै - कोस   मावङी

सतवंती    धरती   दिखळादै
लेलै   निरणै  ठोस   मावङी

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

मैं पीपल सा गर्मी में तपता रहा



मैं  पीपल  सा  गर्मी  में  तपता रहा

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मैं  पीपल  सा  गर्मी  में  तपता रहा
तुम लता  बनके मुझसे  लिपटती रही

गहरे  तूफां  में  पांवों  को  थामे रहा
तुम बरखा के संग  संग  रिपटती रही

* * *

तेरी - मेरी संगत  का  असर यों हुआ
चँदा रोशन  सूरज  से सदा  ज्यों हुआ

साखी तुम हम बने तो खिले गुलमोहर
भौंरा सोचे चटकसे यह कब क्यों हुआ

मेरी  अंगुली ने  गेसू  तेरे  क्या छुए
तुम  छुईमुई  बनकर  सिमटती  रही

* * *

मैंने बरसों  तलक तक सम्भाला जिसे
ख्वाब  वो तेरी आंखों  में है पल रहा

तुम हंसकर के ख्वाबों को रोशन करो
थकके सूरज भी  देखो उधर ढल रहा

मेरी  आंखें  परखती  तेरी  आंख को
तुम मन ही की मन में निपटती रही

 

शनिवार, 29 दिसंबर 2012

‘‘चाल भतूळिया रेत रमां’’ कविता संग्रै


कविता आपरै बगत रो पड़बिम्ब होवै। खास कर उण बगत जद कवि जमीन सूं जुड़ कविताई करै अनै आपरै ओळै-दोळै रै बिम्बां में निजू संवेदणां नै परोटै। उण रै उण निज में जगती भंवै। राजूराम बिजारणियांराजरै ‘‘चाल भतूळिया रेत रमां’’ कविता संग्रै नै बांचता इण बात री साख सवाई होवै।
राजूराम बिजारणियांराजरै इण कविता संग्रै री च्यार खंडां में सामल 61 कवितावां मुरधर माथै जूण रा आंटां नै अंवेरती बगै अनै जूण री अबखायां रा चितराम कोरै। कमती सबदां में गूंथीज्योड़ी आं कवितावां री छोटी-छोटी ओळ्यां में जूण री झीणी अनै अणथाग अकूंत संवेदणावां परोटीजी है।
‘‘चाल भतूळिया रेत रमां’’ री कविता में काळ री मार, बिरखा री चावना, रूंखां रो तप, रेत रो मरम सामल है तो तरक्की रा ताकळां सूं बिंधीजती धरती री पीड़ भी है। प्रीत रा नूवां चितराम आखी धरा सूं गळबांथ घालता बगै।
इण कविता संग्रै नै ‘‘मन री सींव पसरग्यो मून’’ खंड एक निरवाळो संग्रै बणा देवै। इण खंड री कवितावां सेना रै युद्धाभ्यास सारू खाली करवाईज्या 33 गांवां रै उजड़ण री पीड़ अंवेरीजी है। इण खंड रै एक-एक चितराम में गांवां री अंतस तास परगटै
राजूराम बिजारणियांराजरी कविता दीठ खासा ऊंडी है। मुरधर रै भंडाण छेतर री बोली रा सबद अनै जूण जतन रा अबोट दिठाव कविता री मारक खिमता नै और बधावै। आस जगावै कै राजूराम बिजारणियांराजराजस्थानी कविता में ठाई अनै ओपती ठौड़ बणायसी। भविख रै इण लूंठै कवि नै घणां-घणां रंग।
-ओम पुरोहितकागद
आभै रै लूमतै बादळ सूं / छुड़ाय हाथ,
मुळकती-ढुळकती / बा नान्ही-सी छांट!
छोड़ देह रो खोळ / सैहपरी बिछोह...!
गळगी-हेत में / रळगी-रेत में।
आखर-आखर जुड़ सबद बणै अर सबद-सबद सावळ भेळा होयां कोई ओळी रचीजै। सबदां रो भाईपो किणी ओळी नै कदैई गद्य तो कदैई पद्य री ओळख सूंपै। आज विधावां री सींवां घणी नजीक आयगी है। आं मांयलो झीणो भेद समझण खातर एक दीठ री दरकार होया करै। कोई ओळी कविता कद बणै अर उण ओळी रै जोड़ में किसी ओळी राखीज सकै, समझ इण संग्रै री केई कवितावां मांय देखी जाय सकै।
राजूराम बिजारणिया रो कवि मन आपरै आसै-पासै रै संसार मांय रमै। आपरै निजू जगत सूं जुड़ाव राखती आं कवितावां मांय जूण री अबखायां-अंवळायां सोरप-दोरप भेळै जिका रंग परोटीज्या है वै लांबै बगत तांई चेतै रैवैला। न्यारै न्यारै खंडां मांय राखीजी आं कवितावां रा केई सबळा चितराम नवी राजस्थानी कविता री ओप बधावैला। काळ रा सुर तो हरेक कवि उगेरै उगेरै, पण अठै गांव रै उजड़ण री जिकी पीड़ कविता रै मारफत राखीजी है वा काळजै ऊंडै उतरै।
चाल भतूळिया रेत रमांपोथी री कवितावां बांच लखावै कै कवि नै कविता रचण रो आंटो आयग्यो है। वो आपरै आसै-पासै रै संसार नै काव्य-विवेक रै पाण सांवठै रूप मांय आपां साम्हीं राखै। इण संग्रै री तीन खासियतां गिणा साकां- विसय री विविधता, भासा री समझ अर सांवठी बुणगट। युवा कवि राजूराम बिजारणिया नै कविता रै मारग लांबी जातरा सारू मंगळकामनावां।
-डॉ. नीरज दइया




रविवार, 14 नवंबर 2010

मेरे सवालों का जवाब तुम


मेरे सवालों का जवाब तुम

( -राज बिजारणियां )

प्रिय.!
तुम्हारे अधरों की
पालकी पर सवार स्मित.!
आह्लादित कर देती है
मेरे सुसुप्त मन को।

 सौंदर्य की
 पराकाष्ठा को लांघती
पलकों का तुम्हारी
आहिस्ता से उठना.!
 बना देता है
विवश मुझे
गज़ल लिखने पर।

सुर्ख गालों से
ठिठोली करती सर्पीली लट
जब खेलती है
 तुम्हारी
 नजाकत भरी अंगुलियों से
आंख मिचौली!
 तब पाणिपोरों में मेरे भी
 होने लगती है हरारत.!

तुम्हारे
सुरमई नयनों की
संध्या सिंदुर से चुराई लालिमा
खींच देती है क्यों.?
मेरी आंखों में भी रतनारी डोरे।

 आखिर क्यों
उस दिन भी
जब नाग कन्याऐं
थामकर रास सूर्याश्वों की
खींचकर
 ले जाने लगी
 पाताल लोक में

तब तुम्हारे
चक्षुओं की दहलीज से
 ढुलक आए अश्रु
सिरहन बनकर
दौङ उठे
 रग-रग में मेरी.!
मेरे तमाम अनसुलझे
सवालों का जवाब
तुम ही तो हो..!!

 मैं हूं शशि
 तुम साक्षात मार्तण्ड।
तुम ही बनती हो
 मेरी ऊर्जा का स्रोत।

"वितान"

राज बिजारणियां की चित्र प्रदर्शनी "वितान"
एक नज़र में ..!!