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..कि स्वंय की तलाश जारी है अपने और बैगानों के बीच !!

बुधवार, 20 अगस्त 2008

कविता

कहाँ गई वो आजादी..?

हाथ पसारे भूखे प्यासे, नंगा नाच दिखाते हैं

चंद गेहूं के दानों खातिर, अपना लहू बहाते हैं

यहाँ-वहाँ खड़े हैं आहत, हाथ जोड़े ये फरियादी

कहाँ गई वो आजादी..?

भारत माँ के लाल-लाडले, तन पर नहीं लंगोटी है

कहीं बिलखते भूखे बच्चे, किसी हाथ में रोटी है

कैक्टस के जंगल की भांति बढ़ रही है आबादी

कहाँ गई वो आजादी..?

थैला भर नोटों के बदले, मुठ्ठी भर राशन पाते हैं

भरी दोपहरी रोते बच्चे, सबका दिल दहलाते हैं

अजगर बन गरीबी बढ़ती, चहुँ ओर है बर्बादी

कहाँ गई वो आजादी..?

गंगा का आंचल है मैला, घायल आज हिमालय है

भ्रष्टों से भगवान भी भागे, सूने पड़े शिवालय है

कंगूरों की चाहत सबको, नहीं नींव है बुनियादी

कहाँ गई वो आजादी..?

छोटी कविताएँ

ंसानों के घने जंगल में
रीबी की
मैली चद्दर में लिपटी
एक जिन्दा लाश !
रेत के ढेर का
एक अदद ठोकर से
कण-कण होकर
बिखर जाना !
घुंघट में छिपे
नुरानी चेहरे पर
तेजाब से बने
काले स्याह दाग सा !
जीवन की बलखाती
क्षितिज को छूती
लम्बी सड़क पर
एक छोटा सा स्पीड ब्रेकर !
हमारी और आपकी नजरें
देखती है
कोई मंजर
एक साथ!
मगर
बदल जाता है
दोनों के देखने का
नजरिया..!
अंतस की गहराईयों से निकल
यथार्थ को संवारनें के लिए
कुछ कर गुजरने की
तमन्ना लेकर उठते हैं-
ख्वाब.!

करे की गर्दन को

हलाल करते

उसे मिमियाते

दर्द से तड़फते छोड़

बीच में ही

चीख पड़ा

अपना

बड़ा सा

छूरा फैंककर

कसाई!

''अरे बशीर के बच्चे !

भागकर

दवा ला,

दिखता नहीं..?

कट गई है

अंगुली मेरी.!!''