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LOONKARANSAR, RAJASTHAN, India
..कि स्वंय की तलाश जारी है अपने और बैगानों के बीच !!

मंगलवार, 23 दिसंबर 2008

मुगती

गळगी - रळगी

(-राज बिजारणियां )

आभै रै लूमतै बादळ सूं

छुडा'नै हाथ,

बा'... नान्ही सी छांट !

छोड़ देह रो खोळ

सै'ह परी ..!

गळगी- हेत में,

रळगी- रेत में

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

सुरंगो

सुरग सरीखो ..!

-(राज बिजारनियाँ )

चाल बेलीड़ा म्हारै गाँव

खेजड़ल्यां री ठंडी छाँव

बूजा, बांठ , फोगडा ठो'ळ

उभा धोरा करै किलोळ

जठै बिराजै सगला देव

काचर, बोर, मतीरा-मेव

पोखर, नाडी, पाळ तळै

नान्हा-मोटा जीव पळै

गळी -कूंट नै उणा-खू'ण

देव-देवळी सजळ धूण

दुःख सबरो है एक जठै

सुख सबरो है एक बठै

एक जठै है तीज-त्यूंहार

एकै भेळप सीर-संस्कार

खेत-खेडिया धान घणो

आव बटाऊ मान घणो

घणो हेत नै प्रीत घणी

मन रंग राची रीत घणी

सावण आवण आस घणी

खोड़ फूटता घास घणी

घणो आदरयो संत-कबीर

लाड लडायो कवियां-वीर

सुरग सरीखी मायड़ भौम

नित गुण गावै रोम-रोम

सोमवार, 17 नवंबर 2008

राजस्थानी गंगा

( गीत )

चान्दडलो गिगनार

- (राज बिजारनियाँ)

चान्दडलो गिगनार

परदेसां में पीव अमूझै महलां बैठी नार

चुड़लो, नाथ, बोरलो, बिछिया,

पायळ री झनकार

थां बिन छेल भंवर सा

म्हारो बदरंगी सिणगार

काळजियो कळपै किरळावै नैनां झारम-झार

गिणता-गिणता आन्गालियाँ पर

दिन बदळ्या बण मास

नणदोई जी नणदळ साथै

थै क्यूं नीं हो पास

पल-पल म्हारो जीव पतीजै मनडो तारम-तार

बसंत बीतग्यो बासी पड़गी

फागण री फगुवार

चेता-चूक चेत सावणियो

नैनां काजळ सार

कुरजां कैइजो सायब जी नै आओ लारम-लार

चान्दडलो गिगनार

रविवार, 16 नवंबर 2008

ग़ज़ल

वही ढ़ाक के तीन पात हो गयी

(-राज बिजारनियाँ)

सांझ से सूरज मिला कि रात हो गयी

आँख के डोरे तने और बात हो गयी

आदम उतरा आसमां से पाक रूह में

लग हवा धरती की न्यारी जात हो गयी

प्यादों की सरकार अनूठी चलती है

सर खुजलाए शाह कैसे मात हो गयी

ख़ुद से ज्यादा रख भरोसा देखा तो

नहीं समझ में आया भीतरघात हो गयी

कितनी बार बदलकर सत्ता देखी 'राज '

वही ढ़ाक के तीन पात हो गयी

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

रविवार, 28 सितंबर 2008

शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

वाक इन इन्टरव्यू

फ्रांस से राजस्थानी संस्कृति पर शोध करने आई
''इलोदी'' और ''नादेज़'' को राजस्थानी संस्कृति
से रू-ब-रू करवाते राज बिजारनियाँ !

पर्दे के पीछे

फ़िल्म निर्माता नवीन टाक से रू-ब-रू होते राज

राजस्थान पत्रिका में छपी राज की

राजस्थानी पोथी ''कुचमादी टाबर'' की समीक्षा !

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

अंतसतास

अपने और बैगानों में ख़ुद की तलाश..!

लोक संस्कृति की मिठास लिए विभिन्न बातों- ख्यातों और गीतों-रीतों की पैरवी करते रेतीले धोरों की पैदाईश हूँ मैं.! दो दशक पहले अपना अस्तित्व गवां चुके लूनकरनसर तहसील के गाँव ''मोटोलाई'' में मेरा जन्म हुआ ! अपनी जमीन से बिछुड़ने का दर्द क्या होता है, यह महसूस किया है मैंने अपनों की आंखों में.!

कभी चौपाल तो कभी एक ही बाखल में हुक्कों से उठते धुंए चिलम के चस्कों के बीच घुटने वाली हथाई की सुनहली यादें आज भी मेरे अपनों की धुंधलाई आंखों में साफ-साफ नजर आती है! १९८४ से १९८७ के बीच ''महाजन फील्ड फायरिंग रेंज'' के अंतर्गत 'गाँव उठाऊ' कार्रवाई की भेंट चढ़ गया मेरा अपना गाँव॥मेरा अपना घर...और सैंकडों ख़ुद मेरे अपने...!!

तन्हा पीछे छोड़ गया है जाने वाला यादों को,

फिर भी कितने लाड प्यार से हमने पाला यादों को,

नंगे पाँव मिले रस्ते में जब पलकों को गुजरे दिन,

फूट-फूटकर घंटों रोया पाँव का छाला यादों को !!

इस शेर की यह पंक्तियाँ रह-रहकर बिछोह की पीड़ा को फिर से जीवंत कर देती है! उन धोरों में कलकल बहती लोक संस्कृति और लोक गीतों की वैतरणी का मुझ पर ऐसा असर पड़ा कि मेरे हाथों में थमी आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचने वाली कूंची का सहचर्य कलम भी करने लगी!

बस, तबसे कूंची और कलम की संगत जारी है! कभी लेखन, कभी पेंटिग, कभी रंगमंच, कभी मिमिक्री तो कभी एंकरिंग तथा पत्रकारिता के बहाने लोगों से जुड़ने का प्रयास भी मानवीय स्वार्थवश कर रहा हूँ, या यूँ कह लीजिए ख़ुद को तलाशने की कवायद बदस्तूर जारी है॥!!

सोमवार, 1 सितंबर 2008

जरा हटके...!

!!........!!

स्याही कागज पर गिरके 'राज',

तकदीरे फ़साना लिखती है !

बनकर फिर अखबार कोई,

इतिहासे जमाना लिखती है !

लोग गवाही देते हैं ,

संग शब्द साक्षी बनते है !

दग्द हृदय के छालों का फिर,

करके बहाना लिखती है !!

रविवार, 31 अगस्त 2008

राज बिजारनियाँ की छोटी कविताएँ

राम होने के लिए

हर युग में

राम को

ईश्वरत्व प्राप्ति के लिए

आवश्यकता पड़ती है

किसी ना किसी

रावण की.!

बाखल

पुरखों संग जुड़ा

बरसों पुराना

नाता तोड़कर

दहलीज को लाँघ

कमरे में

करीने से

सज्जे बेड पर

सिमट कर

आ बैठी है

बाखळ.!

थाली में श्मसान.!

अरी ! ओ

नन्ही सी जीभ!

अपने

क्षणिक स्वाद खातिर

क्यों बना देती हो तुम..

थाली में श्मसान.!

प्रश्न

हर बार

स्टोव फटने के बाद

क्यों आती है

सिर्फ

बहुओं के

जलने की ख़बर.!

क्या सास साथ लेकर

जन्मती है''स्टोव प्रुफ'' कवच.!

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

गीत

हमारी याद आएगी..!

(-राज बिजारनियाँ )

जब हम नहीं होंगे, हमारी याद आएगी

उठेगी हूक जो दिल में, तुम्हे रह-रहके रुलाएगी

कोई तनहा हो सोएगा

कोई यादें संजोएगा

कोई छुप-छुपके रोएगा

कोई पलकें भिगोएगा

करेंगे लाख कोशिशें, सभी नाकाम जाएगी

जब हम नहीं होंगे, हमारी याद आएगी

कभी तकरार की बातें

कभी खुशियों की सौगातें

कभी वो रूठना हमसे

कभी फूलों से महकाते

वक्त तो रेत है ऐसी, हाथ से छूट जाएगी

जब हम नहीं होंगे, हमारी याद आएगी

यहीं पाना यहीं खोना यहीं हंसना

यहीं रोना यहीं कहना यहीं सहना

यहीं जीना यहीं मरना

जिंदगी छाँव है ऐसी, कभी ना हाथ आएगी

जब हम नहीं होंगे, हमारी याद आएगी

राजस्थानी गंगा

ग़ज़ल

( राज बिजारनियाँ )

पाप रा धूप जळावै क्यूं

काया रोज गळावै क्यूं

काचरिया रो मोह छोडनै

तूम्बा बैल बधावै क्यूं

जिया जूण रा सांसा इतरा

मनडै नै भरमावै क्यूं

खोटा-खोटा काम घणा कर

जीवन बिरथ गमावै क्यूं

करम थांरा ई आडा आवै

आंसूडा ढळकावै क्यूं

ले गेंहू रा स्वाद सबडका

बाजरडी बिसरावै क्यूं

सोमवार, 25 अगस्त 2008

माँ में नेह अपार

(-राज बिजारनियाँ )

माँ के चरण कुरान है, बोली गीता सार

सब ग्रंथों की बानगी, माँ में नेह अपार

माँ की सेवा तीर्थ है, पूजा चारों धाम

माँ की करले बंदगी, वही रहीमन राम

क्या मदिना क्या अवध में, क्या काबा हरिद्वार

पान किया जिस दूध का, पावन गंगाधार

अपने मन को मारती, रोज हारती प्राण

ख़ुद की चिंता छोड़कर , रखती तेरा ध्यान

कोख में नौ माह तलक, पलछिन पाला जीव

जिसमें रमकर रात-दिन, भूली अंगना पीव

कतरा-कतरा दूध का, बना सुधारस धार

उसके बल खेता रहा, जीवन की पतवार

माँ तो दरिया प्रेम का, माँ है बैंकुट द्वार

चरण थामकर बावले, भवसागर कर पार

ख़ुद गीले में रात भर, तुझको रखती सूख

मल धोती मल पौंछती , नहीं ज़रा भी चूक

ना तो सिमरूं देवता, ना रखता उपवास

माँ की सेवा बंदगी, चरण धूलि अरदास

गंगा यमुना सरस्वती, झेलम सतलज व्यास

इन नदियों से ना बुझे, माँ चरणों की प्यास

बुधवार, 20 अगस्त 2008

कविता

कहाँ गई वो आजादी..?

हाथ पसारे भूखे प्यासे, नंगा नाच दिखाते हैं

चंद गेहूं के दानों खातिर, अपना लहू बहाते हैं

यहाँ-वहाँ खड़े हैं आहत, हाथ जोड़े ये फरियादी

कहाँ गई वो आजादी..?

भारत माँ के लाल-लाडले, तन पर नहीं लंगोटी है

कहीं बिलखते भूखे बच्चे, किसी हाथ में रोटी है

कैक्टस के जंगल की भांति बढ़ रही है आबादी

कहाँ गई वो आजादी..?

थैला भर नोटों के बदले, मुठ्ठी भर राशन पाते हैं

भरी दोपहरी रोते बच्चे, सबका दिल दहलाते हैं

अजगर बन गरीबी बढ़ती, चहुँ ओर है बर्बादी

कहाँ गई वो आजादी..?

गंगा का आंचल है मैला, घायल आज हिमालय है

भ्रष्टों से भगवान भी भागे, सूने पड़े शिवालय है

कंगूरों की चाहत सबको, नहीं नींव है बुनियादी

कहाँ गई वो आजादी..?

छोटी कविताएँ

ंसानों के घने जंगल में
रीबी की
मैली चद्दर में लिपटी
एक जिन्दा लाश !
रेत के ढेर का
एक अदद ठोकर से
कण-कण होकर
बिखर जाना !
घुंघट में छिपे
नुरानी चेहरे पर
तेजाब से बने
काले स्याह दाग सा !
जीवन की बलखाती
क्षितिज को छूती
लम्बी सड़क पर
एक छोटा सा स्पीड ब्रेकर !
हमारी और आपकी नजरें
देखती है
कोई मंजर
एक साथ!
मगर
बदल जाता है
दोनों के देखने का
नजरिया..!
अंतस की गहराईयों से निकल
यथार्थ को संवारनें के लिए
कुछ कर गुजरने की
तमन्ना लेकर उठते हैं-
ख्वाब.!

करे की गर्दन को

हलाल करते

उसे मिमियाते

दर्द से तड़फते छोड़

बीच में ही

चीख पड़ा

अपना

बड़ा सा

छूरा फैंककर

कसाई!

''अरे बशीर के बच्चे !

भागकर

दवा ला,

दिखता नहीं..?

कट गई है

अंगुली मेरी.!!''

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

सोमवार, 11 अगस्त 2008

चलचित्र

दूरदर्शन के लिए बनी राजस्थानी ''टेलीफिल्म''
में साथी कलाकरों के साथ राज