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..कि स्वंय की तलाश जारी है अपने और बैगानों के बीच !!

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

गांव


=-=

गांव
=-=
बहता दरिया थम न जाए
देखकर  ठण्डी  छांव में
आओ संगी लौट चलें
फिर से अपने गांव में



खेतों और खलिहानों में
रेतीले खजानों में
खण्डहर हुए मकानों में
बीते हुए जमानों में
हमको कहीं न रुकना साथी
बांधकर बेड़ी पांव में
आओ संगी लौट चलें
फिर से अपने गांव में



कंचन जैसी रेत में
लहलहाते खेत में
सावन भादो चेत में
गांव वालों के हेत में
मंजिल तक है जाना हमको
नहीं सुस्ताना छांव में
आओ संगी लौट चलें
फिर से अपने गांव में



नानी की कहानी में
बचपन की रवानी में
बीत चुकी जवानी में
कलकल करते पानी में
कितने ही युग बदल चुके हैं
प्रतिस्पर्द्धा के दांव में
आओ संगी लौट चलें
फिर से अपने गांव में



कुछ वादे कुछ कस्मों में
अनसुलझे तिलिस्मों में
झरझर बहते चस्मों में
भूली बिसरी रस्मों में
जीवन में कहीं फंस ना जाना
छलिया के छलाव में
आओ संगी लौट चलें
फिर से अपने गांव में



मां के ममता प्यार में
मित्रों की तकरार में
गुलखिले गुलजार में
छोटे से संसार में
बह ना जाना मन मेरे
भावना के बहाव में
आओ संगी लौट चलें
फिर से अपने गांव में



नदियों की रसधार में
बिछड़े हुए परिवार में
ऊंटों की कतार में
जीवन के मझधार में
सुख दुःख जीवन के दो पहलु
जीवन के पड़ाव में
आओ संगी लौट चलें
फिर से अपने गांव में

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