मेरे बारे में

- RAJ BIJARNIA
- LOONKARANSAR, RAJASTHAN, India
- ..कि स्वंय की तलाश जारी है अपने और बैगानों के बीच !!
मंगलवार, 31 दिसंबर 2013
गज़ल
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सदा
डांग पर डेरा अब तो
छात दे
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थांरी
थळगट
सिर झूकै औकात दे
डाळी
लटकै
फूल
एकलो
पात दे
नाड़ ताणली कांटा
कळियां कुमळाई
हवा, रोसणी, पाणी
साथै
खात दे
उमर गाळदी आखी
रुळतां खोड़ां
में
सदा
डांग पर डेरा अब तो
छात दे
बदळै रंग हजार
पलक में किरड़ै ज्यूं
बां
चै‘रां
रै मनसूबां नै मात
दे
हिंदु मुसळिम सिख ईसाई न्यारा क्यूं
जै देणो तो सबनै
माणस
जात दे
शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013
बाड़
बाड़
घर की सुरक्षा के लिए कवच समान है।
बाड़ घर की सुरक्षा में मुस्तैद रहती है।
मैंने बाड़ सीरीज से कुछ कविताएँ लिखी है।
आपके साथ साझा करना चाहता हूँ।
बाड़-1
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निधड़क
सोता
है
हर रात
घर
बिना
डर.।
बाड़..!
फैलाकर
बाँह
करती
आँचल छाँह।
मुस्कराकर
हौले
से...
भरती
हौंसला
बंधाती
धीज
दिलाती
है भरोसा
पगले.!
मैं
हूँ ना.!!
* * *
बाड़-2
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मां
लगा
आती है धोक
ठाकुर
द्वारे.!
हो आती
है गांव।
बतिया
आती
पीहर
के पनघट से
बिना
जिक्र.!
बाबूजी
बनकर
चौपाल
का हिस्सा...
घूम
आते हैं
चर्चाओं
के
पर लगाकर
दूर
तलक
बिना
फिक्र.!
उनके
विश्वास
की गवाह
बाड़
जो है
घर की चौकीदार.!
* * *
बाड़-3
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बाखळ
भले
भूल जाए
धर्म.!
बाड़
कब छोड़ती
है
मर्यादा.?
घर भी
सिमट
आता है
अक्सर
कमरे
तक
जाने-अनजाने
रूठकर
बाखळ
और चौकी से।
..पर बाड़.!
हँसते
मुस्कुराते
बाँहे
फैलाते
करते
हुए
रामा-श्यामा।
पाल
लेती है
लक्ष्मण
धर्म
निभाते
हुए फर्ज
बनकर
लक्ष्मण
रेखा.!
* * *
बाड़-4
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जुड़ती
गई
एक एक ईंट
उखड़ती
गई
खांसती
सिमटती
कांपती
बरसों
जूनी बाड़।
घर
निहारता
नवौढ़ा
भींत.!
बाड़
ताकती
घर.!!
* * *
बाड़-5
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कितने
घर
होते
हैं पोषित
तेरी
छत्र छाया में!
कितनी
घड़कनें
करती
स्पंदन
तेरे
चरणों की
मखमली
धूल पाकर!
तेरे
आंचल की
छांव
तले
सैंकड़ों प्रजातियां
सम्भालकर
विरासत
सौंपती
है
नई जींस
को
रूप
और आकार!
उम्र
दर उम्र
युग
संवारती
फिर
तुम
कैसे
हो सकती हो
अचेतन..?
हे मातृ
स्वरूपा
बाड़.!
* * *
(राज बिजारणियाँ)
शनिवार, 27 अप्रैल 2013
आपकी नज़र : मेरी कहानी..! ....भीगी पलकें
आपकी नज़र : मेरी कहानी..!
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(कहानी)
भीगी पलकें
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‘‘टिंग...टोंग.......!’’
कालबेल की आवाज सुनकर स्वेतलाना ने रसोई का काम छोड़कर दरवाजा खोला। सामने पोस्टमैन खड़ा था। स्वेतलाना ने खत लिया और दरवाजा बंद कर ड्राइंगरुम में आ गई। ड्राइंगरुम को बड़े करीने से सजाया गया था। दीवारों पर टंगी हाथ से बनी किन्तु मंहगी पेंटिग्स अपने वहां होने का आभास करवा रही थी। कमरे के बीचों-बीच गोलाई में रखे पांच बड़े सोफे और उनके बीच रखी महीन कारीगरी युक्त टेबल अपने वजूद का अहसास बार-बार करवा रहे थे। किसी भी आने वाली नजर का सहजता से इनकी और उठ जाना स्वभाविक था।
स्वेतलाना ने बीच वाले सोफे पर बैठते हुए खत खोला। खत की हैंड राइटिंग पहचानते ही एक धुमिल सा किन्तु चिर परिचित सा नाम स्मृति पटल में कौंध गया-‘‘वासु!’’ वर्षों बाद वासु का खत आया था। खत पढ़ते-पढ़ते वासु का धुंधला सा छाया चित्र स्वेतलाना की आँखों के सामने उभरने लगा। मासूम चेहरा, आँखों पर चश्मा, दुबली-पतली काया, छोटे मगर घुंघराले बाल, मघ्यम कद-काठी और आँखें कुछ खोजती हुई। खत पढ़ते-पढ़ते वर्षों पहले की टूटी हुई कङियां फिर से एक-एक कर जुड़ने लगी। उन्ही कङियों के सहारे वह अतीत की गहराईयों में उतरती चली गई।
बात तब की है जब वो कालेज में पढ़ा करती थी। उसे कई दिनों से लग रहा था कि घर से कालेज और कालेज से क्लास रुम तक जाते हुए हर पल कोई उसे घूर रहा हो । फिर इसे अपना खयाली वहम मान अपने काम में लग जाती । यह सोचकर कि शायद मन लगा रहे । वो सुरमई सुबह थी। मखमली धूप ने अपना आँचल चारों तरफ फैला रखा था। ओस की स्वेत बूंदे मैदान में फैली हरी-हरी दूब पर सूर्य के प्रकाश में मोतियों की मानिन्द चमक रही थी। प्रकृति अपनी अनुपम छटा मानो इन्ही पलों में बिखरा देना चाहती हो। स्वेतलाना कैम्पस में बैठी चाय की चुस्कियों के साथ मनोहारी सुखद पलों का लुफ्त उठाते हुए जैसे ही कप रखने के लिए घूमी तो सामने उस लड़के को खड़े देख ठिठकी, जिसे वो अब तक महज वहम मान रही थी। लड़का टकटकी लगाए उसे घूरे जा रहा था। झुंझलाई स्वेतलाना खड़ी होकर लड़के की तरफ लपकी। लड़का सकपका गया। वह जल्दी से खिसकने के लिए मुड़ा परन्तु तब तक स्वेतलाना उसके सामने थी। उसने डपट कर पूछा-‘‘ऐ मिस्टर...! क्या बात है? कई दिनों से देख रही हूं मेरे पीछे चक्कर काटते हुए। कहीं इश्क-विश्क का भूत सवार तो नहीं ? बता देना, अच्छी तरह उतारना आता है मुझे!’’ स्वेतलाना का यह तेवर देख लड़के की सिटी-पिटी गुम हो गई। उसके मुंह से बोल नहीं फूट रहा था। वह घिघियाने लगा। जुबान तालु से चिपक गई।
‘‘मैं...वो...मैं.............!’’ लड़का कुछ बोलता उससे पहले ही स्वेतलाना फिर बरस पड़ी-‘‘...और सुनो! आज के बाद मेरे सामने आए तो...!’’ इतना कहकर वह क्लास रुम की ओर बढ़ गई। उस दिन के बाद स्वेतलाना ने उसे नहीं देखा। वह उसे लगभग अपने दिमाग से निकाल चुकी थी। धीरे-धीरे कई महीने गुजर गए। कालेज की छुट्टियां भी शुरु हो गई।
रात को देर तक टी.वी. देखने के कारण स्वेतलाना उस दिन देर से उठी। मम्मी ने चाय टेबल पर रख कर आवाज लगाई-‘स्वेत..! चाय ठण्डी हो रही है बेटा!’ दस बज चुके थे। स्वेतलाना जल्दी से फ्रेस होकर डाइनिंग टेबल पर आ गई। उसने चाय का पहला घूंट लिया ही था की इतने में दरवाजे पर दस्तक हुई। चाय का कप रख कर वह दरवाजे की तरफ बढ़ी। दरवाजा खुलते ही उसकी आंखों में विस्मय और क्रौध के भाव हिलोरे लेने लगे-‘‘तुम..!’’ दरवाजे पर वही लड़का खड़ा था, जो उसका पीछा किया करता था। स्वेतलाना दबे हुए पर तल्ख स्वर में बोल पड़ी-’‘तुम्हारी मेरे घर की दहलीज पर पांव रखने की हिम्मत कैसे हुई। आखिर अपने आप को क्या समझते हो.? किसी रियासत का राजकुमार..! अपनी सूरत देखी है आईने में कभी..!! अब फूट लो यहां से, नहीं तो मम्मी को बुलाती हूं।’’ स्वेतलाना एक ही सांस में यह सब कहती चली गई। जवाब में लड़के ने सहमते हुए कमर के पीछे की तरफ मुड़े अपने हाथ को आगे निकालकर स्वेतलाना की ओर बढ़ा दिया। उसकी आंखों से आंसुओं का स्रोता फूट पड़ा। स्वेतलाना कुछ समझ नहीं पाई। उसने देखा, लड़के के हाथ में रेशमी धागे में बंधी राखी झूल रही थी। लड़का रुंआसा होकर बोला-‘‘दीदी.!’’ इससे आगे वह एक लब्ज भी नहीं बोल पाया,उसकी सिसकियां फूट पड़ी। स्वेतलाना अवाक् रह गई। लड़का कुछ देर बाद अपने आप को सम्भालते हुए बोला-‘‘मैंने जब पहली बार आपको कालेज जाते देखा तो आप में मुझे मेरी रमा दीदी की छवि नजर आई। मुझे लगा, मानो मेरी रमा दीदी फिर से जीवित हो उठी! लेकिन आपसे यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।’’
कब आंखों से आंसू निकलकर स्वेतलाना के गालों पर उतर आए, उसे पता ही नहीं चला। अब उसे अपने बर्ताव पर ग्लानि होने लगी। बिना सोचे समझे ना जाने क्या-क्या बातें इस लड़के को सुना गई। उसने माफी मांगते हुए लड़के को अन्दर बुलाकर मम्मी से मिलवाया। स्वेतलाना ने उसकी कलाई पर राखी बांधते हुए उसका नाम पूछा, तब कितनी मासूमियत और भोलेपन से जवाब दिया था उसने-‘‘वासु..!’’
हवा के तेज झौंके से हाथ में पकड़ा खत उड़कर दूर जा गिरा तो स्वेतलाना अतीत से निकलकर बाहर आई। वासु ने लिखा था-‘‘दीदी ! आपसे दूर होने के बाद वापी चला आया, एक प्राइवेट कम्पनी में मैनेजिंग डायरेक्टर बनकर। आपकी शादी पर भी नहीं आ पाया, परिस्थितियां ही कुछ ऐसी बन पड़ी थी। दीदी! मेरा ट्रांसफर आपके शहर में हो गया है। मैं इसी महीने की 6 तारीख को आ रहा हूं आपके पास.....!’’ खत के अंतिम हरफ पढ़ते-पढ़ते उसे याद आया-‘‘अरे..! आज ही तो है 6 तारीख।’’ यह खयाल आते ही वह जल्दी-जल्दी काम निपटाने में लग गई। ***
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